लोगों की राय

बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

अध्याय - 8

घनानन्द

 

प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।

अथवा
घनानन्द के व्यक्तित्व और कृतित्व का उल्लेख कीजिए।
अथवा
घनानन्द का यथा समंत प्रामाणिक जीवन-वृत्त और साहित्यिक परिचय कीजिए।
अथवा
घनानन्द के जीवन तथ्यों पर विचार करते हुए उनके साहित्यिक जीवन के प्रेरणा- दायक और प्रमुख तथ्यों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर -

रीतिकालीन मुक्त या स्वच्छन्दधारा के कवियों में घनानन्द का अत्यन्त विशिष्ट स्थान है। इस काव्य-धारा की प्रायः सभी प्रमुख और अपेक्षित काव्य युग इनकी काव्य शैली में कहीं न कहीं अवश्य मिल जाते हैं। भावात्मकता, वक्रता, एकात्मकता, लाक्षणिकता, भावों की वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, मार्मिकता, स्वच्छन्दता आदि जो रीतिमुक्त काव्यधारा की सर्वोच्च विशेषताएँ, वे सभी की सभी इनकी काव्यधारा में कहीं न कहीं पर अवश्य कल्लोल करती हुई दिखायी देती है। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि कविवर घनानन्द ने जो रीतिमुक्त कालीन काव्यधारा का वैशिष्ट्य प्रस्तुत किया, वह वास्तव में अन्यत्र दुर्लभ रहा। यही कारण है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनके सम्बन्ध में ठीक ही लिखा है - "ये साक्षात् रसमूर्ति और ब्रजभाषा काव्य के प्रधान स्तम्भों में हैं।'

जीवन परिचय - अन्य महाकवियों के समान ही घनानन्द के जीवन- विषय में कोई एकमात्र निश्चित प्रमाण और अनुमान नहीं है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार घनानन्द का जन्म संवत 1746 और मृत्यु संवत 1796 में हुई। शुक्ल जी के बाद जो शोध हुए हैं, उनके अनुसार विद्वानों ने कविवर घनानंद के जन्म और मृत्यु सहित जीवन विषयक तथ्यों को एक नये रूप में मान्यता दी है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार इनका जन्म संवत 1730 (सन् 1673) तथा निधन संवत 1817 (सन् 1760) में हुआ। मिश्र जी की यह मान्यता है कि घनानन्द को मृत्यु अहमद शाह अब्दाली के दूसरी बार मथुरा पर किये गये आक्रमण के समय हुई थी।

घनानन्द के जन्म और मृत्यु के सम्बन्ध में जो विद्वानों में मतैक्य नहीं है, साथ ही एक विचित्र सत्य यह भी है कि इनके नाम के विषय में विद्वानों का एक मत नहीं है। घनानन्द, आनन्दघन और आनन्द इन तीनों ही नामों को कुछ विद्वान एक ही नाम मानते हैं और कुछ विद्वान अलग-अलग रचनाकारों से सम्बन्धित बताते हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि कविवर घनानंद ने अपने जीवन से सम्बन्धित कोई स्पष्ट उल्लेख अपनी किसी कृति में नहीं किया है।

घनानन्द के सम्बन्ध में यह जनश्रुति रही है कि उनका जन्म दिल्ली के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। ये बचपन से ही कविता और संगीत के प्रेमी थे। इनके सम्बन्ध में यह भी मान्यता प्रचलित है कि वे निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे। उनके द्वारा लिखे गये ग्रन्थ परमहंस वंशावली के उपलब्ध होने से यह धारणा और अधिक पुष्ट हो गयी है। इस ग्रन्थ में उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा सहित अपनी गुरु परम्परा का भी उल्लेख किया है। इस उल्लेखित गुरु परम्परा में घनानन्द 37वें गुरु श्री नारायण देव के शिष्य थे। घनानंद सर्वथा अपने ऐसे महान गुरु की कृपा किरण को अपने ऊपर चाहते थे, उनके वरदहस्त की छाया अपने सिर पर सदैव रखना चाहते थे। उन्हीं की भक्ति भावना से भरकर ही इन्होंने परमहंस वंशावली की रचना की। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है "प्रेम साधना का अत्यधिक पथ पार करते बड़े-बड़े साधकों - सिद्धों को पीछे-पीछे सुजानों की कोटि में पहुँच गए थे, अतः सम्प्रदाय में उनका सखी भाव का नामकरण हो गया था।' घनानन्द जी का साम्प्रदायिक अथवा सखी नाम 'बहुगुनी' था।

इनके जीवन चरित्र के विषय में प्राप्त मान्यताओं और निष्कर्षों के महत्वपूर्ण उल्लेख-विवरण निम्नलिखित है-

"कतिपय विद्वानों के अनुसार घनानन्द मुगल वंश के विलासी बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में मीर मुंशी थे। उस मुगल दरबार में वे बादशाह की सुजान नामक एक सुन्दर और उत्कृष्ट नर्तकी पर आसक्त थे।

घनानन्द को संगीत से अत्यन्त प्रेम ही नहीं था वरन् वे स्वयं भी बहुत अच्छा गाते थे। किन्तु बादशाह के दरबार मं  अनेक बार कहने पर भी उन्होंने अपना संगीत भी सुनाया। इस पर कुछ लोगों ने बादशाह के कान भरे कि यदि सुजान कह देगी तो घनानन्द उसको अवश्य गाना सुना देंगे। बादशाह ने सुजान को बुलाया और सचमुच ही उसके कहने से घनानन्द ने विभोर होकर गाया परन्तु गाते समय वह दरबार के नियमों की अवहेलना कर गये। फल यह हुआ कि उनको दिल्ली छोड़ने की शाही आज्ञा मिली। कहा जाता है कि चलते समय कवि ने सुजान को अपने साथ चलने को कहा, किन्तु उसने अस्वीकार कर दिया। घनानन्द निराश होकर चल दिये। उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में उसी सुजान के प्रति प्रेम को राधा- कृष्ण की भक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया और अपने प्रेम के उद्गारों को प्रकट का पीयूष की ऐसी स्रोतास्विनी बहायी, जिसने उनको ही अमरत्व प्रदान नहीं किया, वरन् अनेक व्यक्ति हृदयों को भी सिक्त कर दिया। उन्होंने सांसारिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम बना दिया। अपने जीवन को उन्होंने इस प्रेम की स्मृति में ही समाप्त किया और वृन्दावन में रहकर राधा-कृष्ण के चरणों पर ही उन्होंने अपने शरीर को न्योछावर दिया।

उपर्युक्त जनश्रुति को श्री वियोगी हरि ने पद्यबद्ध करके घनानंद के जीवन चरित्र को अधिक प्रामाणिक बनाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'कवि-कीर्तन में ऊपर दी गई जनश्रुति को इस प्रकार रखा है -

"घनआनन्द सुजान को रूप दिवानो।
वाही के रंग रंग्यो प्रेम फंदनि असमानो।
बादशाह को हुक्म पाय नहिं गयो इक पद।
पै सुजान के कहे चाव सो गाए धुपद॥
बादशाह ने कोपि राज्य ते याहि निकार्यो।
वृन्दावन में आय तेष वैष्णव को धारय॥
प्यारे मीत सुजान सों नेह लगायौ।
लगन तान ते गिध्यो गिरह रस मंत्र जगायो।'

स्वर्गीय लाला भगवानदीन जी ने घनानन्द के जीवन काल से सम्बन्धित अपने लेख को 'लक्ष्मी' पत्रिका में प्रकाशित कराया था, जिसमें उन्होंने यह मत व्यक्त किया था -

"आनन्दघन का जन्म लगभग संवत 1715 के प्रतीत होता है और मृत्यु संवत 1766 में जान पड़ती है। ये दिल्ली के रहने वाले भटनागर कायस्थ थे और फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। जनश्रुति यह बतलाती है कि घनआनन्द को बचपन से ही रासलीला देखने का शौक था। बहुधा महीनों तक रास मण्डली का भार अपने ऊपर लेकर दिल्ली में रासलीला करवाते थे और स्वयं भी किसी लीला में भाग लेते थे। इससे उनको हिन्दी भाषा के पद सीखने और संगीत का व्यसन लगा और आगे चलकर वह निपुणता दिखाई, जिसकी सराहना आज भी भाषाविद् करते हैं और अभी तक रासधारियों में इनके पद अधावधि गाए जाते हैं। इस रास की भावना का इन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि ये श्रीकृष्ण की लीलाओं में लीन रहने के लिए दरबार और गृहस्थी से नाता तोड़ वृन्दावन चले आये और वहाँ किसी व्यास वंश के साधु से दीक्षा ले यह किसी उपासना में दृढ़ और मग्न हो गये।"

लाला भगवानदीन की खोज के आधार पर घनानंद का काल संवत 1715 से 1796 तक माना जाता है, किन्तु इन्होंने सुजान की चर्चा नहीं की है। इन्होंने घनानन्द के काव्य की प्रेरणा सुजान को नहीं वरन् रासलीला को ही इसका आधार माना है। श्री शम्भु प्रसाद बहुगुना दीन जी की खोज का पुष्ट आधार न होने के कारण उसे वैज्ञानिक नहीं मानते। उन्होंने अपनी कृति 'घनआनन्द पृष्ठ तीन पर इस प्रकार की आलोचना की है- "जन्म संवत का आधार हो सकता है शिव सिंह सरोज रहा हो। जान पड़ता है शिव सिंह सरोज के विवेचन के आधार पर अर्थात यह देखकर कि संवत 1746 में बने 'कालिदास हजारा' का जहाँ अधिक उपयोग कवियों की जीवनी तथा कविता का विवरण देते समय सेंगर ने किया है वहाँ 'आनन्दघन दिल्ली वाले के बारे में नहीं लिखा है कि 'हजारा' में इनकी कविता है। इस अनुमान से संभवतः पं0 रामचन्द्र शुक्ल तथा वियोगी हरि ने घनानंद का जन्म संवत 1746 के आस-पास मान है।"

राधाकृष्णदास ने घनानंद को नागरीदास का मित्र सिद्ध करते हुए लिखा है "हमारे यहाँ एक अत्यन्त प्राचीन चित्र हैं, जिसमें नागरीदास जी और घनानंदजी एक साथ विराजते हैं। किन्तु चित्र का वास्तविक रूप में कहीं गिर गया है। जब तक वह चित्र उपलब्ध नहीं होता, तब तक राधाकृष्णदास द्वारा प्रतिपादित मत की सत्यता को कोई प्रामाणिक रूप नहीं मिलता। जयलालजी ने घनानंद नागरीदास और हरिदास को समकालीन माना है। जयलाल कवि ने 'नागर समुच्चय' के साथ छपे 'छप्पनभोग चन्द्रिका' में तीन स्थानों पर घनानंद और नागरीदास की मित्रता का वर्णन किया है "आनन्दघन हरिदास आदि संत वचन सुनि सुनि" आनन्दघन हरिदास आदि से संत सभा माही, आनन्दघन को संत करत तन मन भी बाडयो"

श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने राधाकृष्णदास द्वारा दिये गये मत को ही प्रामाणिक मानकर अपने मत का प्रतिपादन किया है- "इससे भी पता चलता है कि घनानंद जी और नागरीदास जी सम-सामयिक थे। अपने मत की पुष्टि में मिश्र जी ने भारतेन्दु के मत को भी उद्धृत किया है- "कदाचित् इसी से उतारे प्रति चित्र का उल्लेख भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के 'सुजान - शतक के आरंभ में हैं।' मिश्र जी ने राधाकृष्णदास के कथन की पुष्टि में आगे कहा है- "नागरीदास के चार महात्मा हुए हैं। राधाकृष्णदास ने चौथे नागरीदास के साथ जो सावंतसिंह के नाम से प्रसिद्ध थे, आनन्दघन जी के सत्संग की चर्चा की है। इन नागरीदास का रचनाकाल संवत 1780 से 1879 तक माना है। इस प्रकार मिश्र जी ने चौथे नागरीदास को सम-सामयिक मानकर राधा कृष्णदास के मत को ही मान्य सिद्ध किया है।

घनानंद के जीवनवृत्त सम्बन्धित जो वृत्तांत उल्लेख किये गये हैं, उनमें एक वृत्तांत का उल्लेख अधिक अपेक्षित लग रहा है। वह यह कि श्री शम्भु प्रसाद बहुगुना रीवाँ नरेश रघुनाथ सिंह के अनुसार " घनानंद की मृत्यु न नादिरशाह के आक्रमण न अहमदशाह के आक्रमण से हुई थी।' उन्होंने स्पष्ट कहा है कि - "जिस समय औरंगजेब अपने भाई दारा से युद्ध कर रहा था, उस समय मथुरा निवासियों ने उसका अपमान किया हो, जैसाकि रघुनाथ सिंह ने अपनी कविता में लिखा है और उसी आक्रमण का बदला औरंगजेब ने अपने शासन काल में मथुरा पर आक्रमण का बदला औरंगजेब ने अपने शासन काल में मथुरा पर आक्रमण करके तथा वहाँ के मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट करके किया हो। बहुगुना जी ने रीवां नरेश रघुनाथसिंह द्वारा वर्णित कथा को केवल अनुमान के आधार पर ही औरंगजेब या उसके शासक मुहम्मदशाह से जोड़कर घनानन्द की मृत्यु का समय 1660 माना है। इस विषय को अनेक विद्वान प्रामाणिक और सत्य नहीं मानते हैं।

कविवर घनानन्द के जन्म और मृत्यु के विषय में विद्वानों में मतभेद है। इसका मुख्य कारण है सटीक और अपेक्षित प्रमाणों का अभाव। दूसरा कारण यह है कि प्राप्त और प्रस्तुत किये गये तथ्य प्रमाणों का अनुमान की बुनियाद या पक्के और प्रौढ़ नहीं सिद्ध होना। इस प्रकार से किसी शब्द मत - प्रमाण या अनुमान को पूर्णता सत्य और अत्युपयुक्त कह पाना कठिन और अनुचित लगता है।

रचनाएँ जिस प्रकार घनानंद के जन्म, जीवन और मृत्यु के विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं वैसे ही उनकी रचनाओं के विषय में भी उनके मत एक नहीं हैं। समय-समय पर प्रकाशित और उल्लेखित इनकी रचनाओं के विविध क्रम-स्वरूप परस्पर भिन्न दिखाई देते हैं। कुछ उल्लेखनीय विवरण इस प्रकार हैं- काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने संवत 2000 तक की खोज में निम्नलिखित ग्रन्थों के हस्तलेख किये थे -

(1) घनानंद व्यक्ति (00-79),
(2) आनन्दघन के व्यक्ति (6- 125, 26- 12 ए),
(3) कवित्त - (26-116),
(4) स्फुट कवित्त (32- 7 सी,
(5) आनन्दघन जू के कवित्त (41 - 10 ख),
(6) सुजान हित (12-4 बी),
(7) सुजान हित प्रबन्ध (29-116 बी),
(8) वियोग-बोली (178 बी, 29-116 बी),
(9) इश्कलता - (12- 49, 32 7 ए),
(10) कृपाकन्द निबन्ध (2 - 66),
(11) जमुना जस (41-104 क)
(12) आनन्दवन जू की पदावली (26-11वी),
(13) प्रीति प्रवास (17- ए. 29-116ए)
(14) सुजान विनोद (23-14 बी),
(15) कवित्त संग्रह (32- 7 बी),
(16) रस केलि वल्ली - (20-69),
(17) वृन्दावन सत (22-7 डी)

श्री शम्भु प्रसाद बहुगुना ने अपनी पुस्तक 'घनआनन्द' में घनानंद कवि द्वारा लिखित निम्नलिखित पुस्तकें मानी हंे -

(1) सुजान सागर, घनानन्द कवित्त, रस केलि वल्ली, सुजान हित।
(2) श्री कृपाकन्द निबन्ध।
(3) इश्कलता।
(4) सुजान राग माला।
(5) प्रीति - पावस।
(6) वियोग बोली।
(7) नेहसागर।
(8) विरह लीला।
(9) प्रेम पत्रिका।
(10) बानी।
(11) छतरपुर का ग्रन्थ जिसका उल्लेख मिश्र बन्धुओं ने किया है।
(12) गेय पद।

जिन ग्रन्थों को पं0 विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने प्रामाणिक मानकर 'घनानन्द ग्रन्थावली' के रूप में प्रकाशित किया है उनकी नामावली इस प्रकार है -

(1) सुजानहित
(2) कृपाकन्द
(3) वियोगवोलि
(4) इश्कलता
(5) यमुनायश
(6) प्रीति पावस
(7) प्रेम पत्रिका
(8) प्रेम सरोवर
(9) ब्रज विलास
(10) सरस बसन्त
(11) अनुभव चन्द्रिका
(12) रंक बधाई
(13) प्रेम पद्धति
(14) वृषभानपुर सुषमा वर्णन
(15) गोकुल गीत
(16) नाम माधुरी
(17) गिरि पूजन
(18) विचार सार
(19) दान घटा
(20) भावना प्रकाश
(21) कृष्ण कौमुदी
(22) छाम चमत्कार
(23) प्रिया प्रसाद
(24) वृन्दावन मुद्रा
(25) ब्रज स्वरूप
(26) गोकुल चरित्र
(27) प्रेम पहेली
(28) रसना यश
(29) गोकुल विनोद
(30) ब्रज प्रसाद
(31) मुरलिका मोद
(32) मनोरथ मंजरी
(33) ब्रज व्यवहार
(34) गिरि गाथा
(35) पदावली
(36) प्रकीर्णक
(37) छन्दाष्टक
(38) त्रिभंगी
(39) परमहंस वंशावली।

कविवर घनानन्द के प्रायः सभी ग्रन्थ प्राप्त हो चुके हैं। केवल एक फारसी मसनवी का पता जो 'बिहार-उड़ीसा' रिसर्च जनरल के आधार पर है, अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इस प्रकार से कविवर घनानन्द के ग्रन्थ अब अटकलों और सम्भावित तथ्यों को पार करके स्पष्ट और विश्वस्त रूप से साहित्य प्रकाश में जा चुके हैं। इन ग्रन्थों को देखने से इनकी विविधता का पूरा ज्ञान हो जाता है। इन ग्रन्थों के अलग-अलग रूप आकार विषयों की अनेकरूपता को प्रकट करने वाले हैं।

प्रेम की पीर के अमर गायक - घनानन्द प्रेम की पीर के अमर गायक हैं। उनके प्रेम की पीड़ा लौकिक और अलौकिक दोनों हैं। उनका प्रेम सांसारिक रूप में उदित होकर असांसारिक बन गया है। सुजान के प्रति उत्पन्न हुआ प्रेम सांसारिक है, लेकिन सुजान के द्वारा कवि को दी गई फटकार और उससे उत्पन्न हुआ प्रमोमाद असांसारिकता की ओर मुड़ गया है। यह प्रेम कृष्ण भक्ति भावना की तरह हो गया। इसे प्रेम की भक्ति की शुद्ध और परिपक्व भावधारा कहा जा सकता है। इसे उन्होंने प्रेम का महासागरीय रूप देते हुए राधा-कृष्ण को इस प्रेम धारा में अवगाहन करते हुए चित्रित किया है

"प्रेम को महोदधि अपार हेरि कै विचार,
बापुरो हहारि वार ही ते फिरि आयो है।
ताको कोऊ तरक तरंग संग छूद्रयों,
कन, परि लोक लोकनि उमड़ि उपनायो है॥
सोइ घन आनन्द सुजान लगि हेत होत,
ऐसे मथि मन पै सरूप ठहरायो है।
ताहि एक रस है, विवस अवगाहै दोऊ,
नेही हरि राधा जिन्हें हेरि सरसायो है।'

घनानन्द का यह प्रेम अत्यन्त सीधा है। उसमें कोई खोट नहीं है। कोई झिझक कपट नहीं है। उसे केवल यही टीस और कसक है कि मन तो लेकर छटांक भी नहीं प्रेम मिला तो फिर कैसे इस प्रेम-व्यापार का आगे क्या होगा -

"अति सूधो सनैह कौ मारग है, जहँ नेकु सयानय बांक नहीं
तहँ साँचे चलै तजि अपनपौ, झिझकै कपटी जो निसांक नहीं।
घनआनन्द प्यारे सुजान सुनौ इत एक ते दूसरी आँक नहीं।
तुम कौन-सी पाटी पढ़े हौ लला, मन लेलु पै देहुँ छटांक नहीं।'

घनानन्द अपने अनंत व्यापी प्रिय के प्रति समर्पित है। उसके रूप सौन्दर्य पर लट्टू हैं। उसके अत्भुत सौन्दर्य पर रीझते हुए वे कहते हैं-

"रावरे, रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिए।
त्यों इन आँखिन बानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आन तिहारिए।
एक ही जीव हुतौ सुतो वार्यो, सुजान संकोच सोच सहारिए।
रोकी रहै न वह घनआनन्द वावरी रीझ के हाथानि हारिए। '

काव्यगत विशेषताएँ - घनानंद का काव्य साहित्य भाव पक्षीय और कला पक्षीय अद्भुत विशेषताओं से लदा हुआ है। उसमें चमत्कार, सौन्दर्य, आकर्षण और अद्भुत प्रभाव है। आपके काव्यों में न केवल भावों का अथाह प्रवाह है अपितु भाषा, अलंकार और अर्थ की ऊँची-ऊँची लहरे भी हैं। आपकी काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

प्रेम दशा की व्यंजना - घनानंद का प्रेमानुभाव अति विशिष्ट है। इनके प्रेम दशा की व्यंजना क्षेत्र पर आचार्य शुक्ल ने मत व्यक्त किया है -

"प्रेम दशा की व्यंजना ही इनका अपना क्षेत्र है।' प्रेम की यह अन्तर्दशा का उद्घाटन जैसा इनमें है वैसा हिन्दी के अन्य श्रृंगारी कवि में नहीं। इस दशा का पहला स्वरूप है हृदय या प्रेम का आधिपत्य और बुद्धि के अधीन पद, जैसा कि घनानंद ने कहा है -

"रीझ सुजान सची पटरानी, बची बुद्धि आपरो है करि दासी।

कविवर घनानंद की प्रेम दशा का दूसरा स्वरूप क्या है? इसे स्पष्ट तो नहीं किया है, लेकिन उन्होंने इस सम्बन्ध में इतना तो स्पष्ट लिखा है- "प्रेमियों की मनोवृत्ति इस प्रकार की होती है कि वे प्रिय की कोई साधारण चेष्टा भी देखकर उसका अपनी ओर झुकाव मान लिया करते हैं और फूले फिरते हैं। इसका वैसा सुन्दर आभास कवि ने नायिका के इस वचन द्वारा दिया है जो मन को संशोधन करके कहा गया है।

"रुचि के वे राजा आन प्यारे हैं आनन्द घन।
होत कहा हेरे रंक। मानि कीनो मेल सों।'

संयोग वर्णन - प्रेम का यह स्वरूप नायक और नायिका के रूप में और ईश्वर और भक्त के रूप में सुखद दुखद अवस्थाओं को लेकर चला है। संयोग वर्णन में घनानंद ने नख-शिख वर्णन-पद्धति का पूरा उपयोग किया है।

यह नख-शिख वर्णन बिहारी की तरह लोक मर्यादा को कुचलने वाला नहीं है, अपितु इनमें शालीनता, शिष्टता, औदार्य और गम्भीरता है, कहीं कुछ भी उच्छृंखलता अथवा अतिशयोक्तिपूर्ण वक्ता की झलक नहीं है। इस वर्णन क्षेत्र में घनानंद के कवित्त सूक्ष्म सौन्दर्य भाव से खिल उठे हैं। उनकी प्रेयसी सुजान के रूप सौन्दर्य की एक झाँकी देखिए-

"मलकै अति सुन्दर आनन गौर, छकै दृग, राजति काननिहतै।
हँसि बोलनि में छवि - फूलनि की वरषा उर ऊपर जाति है है।
लट लोल कपोल कलोल करें, कलकंड बनी जल जावति है।
अंग-अंग तरंग उठै, दुति की परि है, मनो रूप कौ घरच्वै॥'

वियोग वर्णन - घनानंद का वियोग वर्णन भी किसी प्रकार से अतिशयपूर्ण या अविश्वसनीय न होकर अति सहज, विश्वसनीय और यथार्थपूर्ण है। कवि का यह वर्णन अतिभावपूर्ण होने पर भी किसी प्रकार से अस्वाभाविक नहीं है। अपने प्रिय के प्रति पर भी किसी प्रकार से अस्वाभाविक नहीं है। अपने प्रिय के प्रति, न्योछावर की भावना प्रयास को कवि ने मछली और जल के परस्पर प्रेम लगाव से कहीं अधिक

श्रेष्ठतर बताते हुए अपनी वियोग दशा का उल्लेख इस प्रकार कवि ने किया है -
"हीन भए जल मीन अधीन कहा कुछ भी अकुलानि समानै।
नीर सनेही को लाय कलंक निरास है कायर त्यागत प्रानै॥
प्रीति की रीति सु क्यों समझे जड़ मीत के पानी परै को प्रमानै।
यामन की जुदसा घनानंद जीत की जीतनि जान ही जानै।'

वियोग पीड़ा की सच्चाई की अभिव्यक्ति कवि के कवित्रों से अधिक स्पष्ट और हृदय स्पर्शी रूप में हुई है। एक उदाहरण देखिए -

"जान सजीवन प्रान लखे, आतु आँखिन आवेप्त आँधे।
लोग बताई सह निरदै अहिवान से बैन अयान सो साधे॥
को समझे मन की घनआनन्द औरई वेदन बौराई नाछे।
पीर् भर्यो जिस छीर धरै धरै नहिं कैसो रहे जल जाल के बांधे॥'

कहा जा सकता है कि घनानंद का संयोग और वियोग पक्ष अधिक सुबोध और मार्मिक उक्तियों से अलंकृत है।

भाषा शैली - कविवर घनानंद की भाषा ब्रजभाषा की वह आकर्षण भरी भाषा है जिसने दयानंद को उनके जीवन में ही उन्हें लब्ध प्रतिष्ठित कर दिया था। इस सम्बन्ध में उसके समकालीन कवि ब्रजनाथ के एक सवैया को उधृत करना अप्रसांगिक नहीं होगा -

"नेही महाब्रजभाषा- प्रतीन और सुन्दरतानि के भेद को जाने।
जोग-वियोग की रीति में कोविट, भावना भेद स्वरूप को ठाने।
चाह के रंग में भी ज्यों हियों, बिछुरै मिले प्रतीम सातिन मानै।
भाषा-प्रतीन सुछन्द सदा रहै, सो घन जू के कक्ति बखानै।"

इस भाषा की प्रवीनता ही घनानंद की काव्य-शैली की सर्वोच्च विशेषता है। इसी विशेषता के कारण कवि ने भाव साधारण होकर भी असाधारण हो गये हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भाषा के इस असाधारण प्रयोग वैचित्र्य की संज्ञा देते हुए कुछ उदाहरण दिये हैं, जो इस प्रकार उल्लेखनीय है।

(क) आसानि गही वह बानि कछु, लरसानि सो आनि निहोरत है।
(ख) ह्वै है सोऊ धरो भाग उहाते, आनन्दघन सुरत बटसि, लाल।
        देखिहौ हरी हमें। (खुले भाग्य वाली घड़ी' में विशेषण विपर्यय)
(ग) उधरो जग, छाप रहे घनआनन्द, चातक ज्यौं किए अब तौ।
        (उद्यते जग संसार जो चारों ओर घेरे था, वह दृष्टि से हट गया)
(घ) कहिए सु कहा अब मीन मली, नहिं खोजत जो हमें पावते जू।
        (हमें हमारा दृश्य)

साहित्यिक महत्व - कविवर घनानंद का रीतिकालीन कविता की रीतिमुख या स्वच्छन्द काव्यधारा में शिरोमणि स्थान है। यह महत्व उनके द्वारा चित्रित प्रेम के दोनों पक्षों लौकिक, अलौकिक सम्बन्धित भावों की उन्मुखता और विश्वनीयता के साथ-साथ प्रभावमयता के फलस्वरूप है। उनकी रचना उनकी स्वयं सबद्ध अनुभति की वह अभिव्यक्ति है, जिससे उसमें कृत्रिमता का कहीं लेश नहीं है -

"लोग है लागि कक्ति बनावट मोहि तो मेरे कवित्त बनावट '

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book